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ग़ज़ल
जलें जब घर तो या-रब तुझ से इतनी इल्तिजा है
दुपट्टों से ढके चेहरों को तू महफ़ूज़ रखना
रफ़ीआ शबनम आबिदी
ग़ज़ल
ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र
कभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
बे-पिए हूँ कि अगर लुत्फ़ करो आख़िर-ए-शब
शीशा-ए-मय में ढले सुब्ह के आग़ाज़ का रंग