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ग़ज़ल
लकद कूब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मिरी ताक़त कि ज़ामिन थी बुतों की नाज़ उठाने की
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
किया है वा'दा-ए-फ़र्दा उन्हों ने देखिए क्या हो
यहाँ सब्र ओ तहम्मुल आज ही से हो नहीं सकता
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
'असद' ऐ बे-तहम्मुल अरबदा बे-जा है नासेह से
कि आख़िर बे-कसों का ज़ोर चलता है गरेबाँ पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तहम्मुल कर सके क्या हुस्न-ए-नाज़ुक उन निगाहों का
उसे मैं ने छुपाया है वगर्ना वो निहाँ क्यूँ हो
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
दीदार-ए-जानाँ का भला क्यूँ कर तहम्मुल हो सके
तिरछी निगाहें एक सू ज़ुल्फ़-ए-चलीपा इक तरफ़
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
न लेते काम गर सिब्त-ए-नबी सब्र-ओ-तहम्मुल से
लईनों का निगाह-ए-ख़श्म से आसाँ था मर जाना
महाराजा सर किशन परसाद शाद
ग़ज़ल
वो आराइश में सब क़ुव्वत किसी का सर्फ़ कर देना
तहम्मुल में वो हर कोशिश मिरी बेकार हो जाना
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
क्या ख़बर 'सीमाब' कब घबरा के दे दे अपनी जान
ज़ब्त गो अब तक तहम्मुल-कोश है तेरे बग़ैर
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
तहम्मुल अपनी फ़ितरत में है शामिल वो कभी 'हस्सान'
मिज़ाज अपना ज़रा सी बात पर बरहम नहीं करते