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ग़ज़ल
जज़्ब हो कर रह गया हूँ मैं जमाल-ए-दोस्त में
इश्क़ है ताबिंदा-तर पाइंदा-तर मेरे लिए
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
सुब्ह को निकला था गरचे कर्र-ओ-फ़र से आफ़्ताब
मुँह फिराया हो ख़जिल उस इश्वा-गर से आफ़्ताब
महाराजा सर किशन परसाद शाद
ग़ज़ल
निगाह-ए-दिल के परतव से करें शाम-ओ-सहर रौशन
मह-ओ-ख़ुर्शीद की ताबिंदगी तक बात क्यों पहुँचे