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ग़ज़ल
मेरे ही संग-ओ-ख़िश्त से तामीर-ए-बाम-ओ-दर
मेरे ही घर को शहर में शामिल कहा न जाए
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
कोई ज़र्रे को ज़र्रा ही समझ कर छोड़ देता है
किसी को सूझती है इस से ता'मीर-ए-बयाबाँ की
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
इक अज़ाब-ए-मुस्तक़िल है फ़िक्र-ए-तामीर-ए-मकाँ
साकिन-ए-सहरा-ए-बे-दीवार-ओ-दर हो जाइए
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
बगूले क़ालिब-ए-दीवार-ओ-दर में होते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
ग़ज़ल
सिर्फ़ इस धुन में कि ता'मीर-ए-मोहब्बत सहल हो
जाने किन किन मुश्किलों का सामना करता हूँ मैं
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
अब्र-ए-नैसाँ की न बरकत है न फ़ैज़ान-ए-बहार
क़तरे गुम हो गए ता'मीर-ए-गुहर से पहले