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ग़ज़ल
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूँ
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
कहे है कोहकन कर फ़िक्र मेरी ख़स्ता-हाली में
इलाही शुक्र करता हूँ तिरी दरगाह 'आली में
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
क़द्र कर दिल की कि दरगाह-ए-ख़ुदा में ऐ नदीम
दो-जहाँ की ने'मतें हाज़िर हैं लेकिन दिल नहीं
एहसान दानिश
ग़ज़ल
अगर वो फ़ित्ना जो तुझ से मिले 'हातिम' तो कह दीजो
कि मंसूबे तिरे सब बंदा-ए-दरगाह जाने है