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ग़ज़ल
कितनों को दस्तियाब है कितनों का रिज़्क़ है
इक चाँद है जो हिज्र की रातों का रिज़्क़ है
मीसम अब्बास
ग़ज़ल
न जाने क्यूँ नज़र-अंदाज़ कर दिया मुझ को
जहाँ पे तुम थे वहीं दस्तियाब था मैं भी