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ग़ज़ल
हम अहल-ए-ज़र्फ़ कि ग़म-ख़ाना-ए-हुनर में रहे
सिफ़ाल-ए-नम की तरह दस्त-ए-कूज़ा-गर में रहे
सहर अंसारी
ग़ज़ल
ग़ुरूर उन को अगर रहता है अपनी कामयाबी का
'सहर' हम भी शिकस्त-ए-फ़ातेहाना याद रखते हैं
सहर अंसारी
ग़ज़ल
मैं हर एक शब यही बंद आँखों से पूछता हूँ सहर तलक
कि ये नींद किस लिए उड़ गई अगर एक ख़्वाब नहीं रहा