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ग़ज़ल
जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी
तो फ़सुर्दगी निहाँ है ब-कमीन-ए-बे-ज़बानी
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
दाग़-ए-दिल दाग़-ए-जिगर शम-ए-फ़रोज़ाँ हो गया
उन के आते ही मिरे दिल में चराग़ाँ हो गया
फ़ाज़िल काश्मीरी
ग़ज़ल
ये सोज़-ए-दाग़-ए-दिल ये शिद्दत-ए-रंज-ओ-अलम कब तक
हमारे ही लिए ये जौर-ए-गर्दूं है तो हम कब तक
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
दाग़-ए-दिल से मह-ओ-ख़ुर्शीद को निस्बत क्या है
सामने आएँ तो खुल जाए हक़ीक़त क्या है