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ग़ज़ल
ये हवस के बंदे हैं नासेहा न समझ सके मिरा मुद्दआ'
मुझे प्यार है किसी और से मिरा दिल-रुबा कोई और है
दर्शन सिंह
ग़ज़ल
मेरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
ये सब कुछ हो मगर मैं कह नहीं सकता कि क्या तुम हो
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
ये तुलू-ए-रोज़-ए-मलाल है सो गिला भी किस से करेंगे हम
कोई दिलरुबा कोई दिल-शिकन कोई दिल-फ़िगार कहाँ रहा