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ग़ज़ल
कैसे दूर-अंदेश मुंसिफ़ थे कि इन्साफ़न मुझे
मानते थे बे-ख़ता लेकिन रिहा करते न थे
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
सहर होते ही हम यकजा सुबू-ओ-जाम करते हैं
सवेरे ही से दूर-अंदेश फ़िक्र-ए-शाम करते हैं
साहिर सियालकोटी
ग़ज़ल
देख जज़्बात-ए-नज़र सब राएगाँ हो जाएँगे
वो निहाँ ही कब हैं नादाँ जो 'अयाँ हो जाएँगे
शिफ़ा ग्वालियारी
ग़ज़ल
अबस है नाज़-ए-इस्तिग़्ना पे कल की क्या ख़बर क्या हो
ख़ुदा मालूम ये सामान क्या हो जाए सर क्या हो
नज़्म तबातबाई
ग़ज़ल
जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं
वो पास आए तो अब दूर जा रहा हूँ मैं