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ग़ज़ल
वो पढ़ाते वक़्त दर्जे में हज़ार बार बरसे
जो मुझे भी छींक आती उन्हें नागवार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
कहाँ अब वो मौसम-ए-रंग-ओ-बू कि रगों में बोल उठे लहू
यूँही नागवार चुभन सी है कि जो शामिल-ए-रग-ओ-पै नहीं
नासिर काज़मी
ग़ज़ल
वो तेरी याद कि अब तक सुकून-ए-क़ल्ब-ए-तपाँ थी
तिरी क़सम है कि अब वो भी नागवार है आ जा
जमीलुद्दीन आली
ग़ज़ल
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा ना-गवार गुज़री है