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ग़ज़ल
'बिस्मिल' बुतों का इश्क़ मुबारक तुम्हें मगर
इतने निडर न हो कि ख़ुदा का भी डर न हो
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
बना दिया है निडर ज़िद्दी ख़्वाहिशों ने 'नसीम'
ख़ुद ए'तिमाद न था अपने आप पर मुझ को
इफ़्तिख़ार नसीम
ग़ज़ल
निडर ला-तक़्नतू पढ़ कर गुनाहों से था मैं अपने
ये वाइ'ज़ क्यूँ डराते हैं मुझे ग़फ़्फ़ार क्या बाइ'स
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
निडर भी ज़ात में अपनी हूँ ख़ुद से ख़ाइफ़ भी
लहू में मेरे हिरा भी है अर्ज़-ए-ताएफ़ भी
मुनीर सैफ़ी
ग़ज़ल
आँख तो तू ने निडर हो के मिला ली थी मगर
तब से शर्माई हुई तेरी नज़र है कि नहीं