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ग़ज़ल
इस क़दर मज़बूत मौसम पर रही किस की गिरफ़्त
मैं कि मुझ से सीना-ए-आब-ओ-हवा रौशन हुआ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
न रहा धुआँ न है कोई बू लो अब आ गए वो सुराग़-जू
है हर इक निगाह गुरेज़-ख़ू पस-ए-इश्तिआ'ल के दरमियाँ
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
देख लेना पस-ए-क़ातिल भी कोई होगा ज़रूर
सिर्फ़ क़ातिल ही चलाता नहीं ख़ंजर देखो
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
जब हो दम-ए-आख़िर तो बचा लेने की ताक़त
फिर ख़ाक-ए-शिफ़ा में न कहीं आब-ए-बक़ा में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मर चुका मैं तो नहीं उस से मुझे कुछ हासिल
बरसे गर पानी की जा आब-ए-बक़ा मेरे ब'अद
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बार-हा जी में ये आई उम्र-ए-रफ़्ता से कहूँ
शाम होने को है ऐ भूले मुसाफ़िर घर तो आ
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
जिस के पढ़ने से रही क़ासिर भँवर की आँख भी
कौन जाने क्या हवा ने बादबाँ पर लिख दिया