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ग़ज़ल
हमारी मय्यत पे तुम जो आना तो चार आँसू बहा के जाना
ज़रा रहे पास-ए-आबरू भी कहीं हमारी हँसी न करना
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
लगा है 'आबरू' मुझ कूँ 'वली' का ख़ूब ये मिसरा
सवाल आहिस्ता आहिस्ता जवाब आहिस्ता आहिस्ता
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
हम तो कहते थे कि फिर पाने के नहिं जाने न दो
अब गए पर 'आबरू' फिर पाइए मुश्किल है ये
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
क्यूँ कर न होवे क्लिक हमारा गुहर-फ़िशाँ
करते हैं 'आबरू' ये तख़ल्लुस सुख़न में हम
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
किस तरह चश्मों सेती जारी न हो दरिया-ए-ख़ूँ
थल न पैरा 'आबरू' हम वार और वे पार हैं
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
सज़ा है उन के तईं ये दर्द थोड़ा सा कि करती थीं
हमेशा चश्म-पोशी 'आबरू' का देख हाल अँखियाँ
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
बाँधा है बर्ग-ए-ताक का क्यूँ सर पे सेहरा
किया 'आबरू' का ब्याह है बिंत-उल-एनब सेती
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
रवाँ नहिं तब्अ जिस की शेर-ए-तर की तर्ज़ पाने में
नहीं होता है उस कूँ 'आबरू' के हर्फ़ सीं बहरा
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
दिल मिरा तावीज़ के जूँ ले के अपने पास रख
तो तुफ़ैल-ए-हज़रत-ए-आशिक़ के हो तुझ कूँ शिफ़ा