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ग़ज़ल
जो बच्चे भूल कर रंगीनियों में ग़र्क़ हो जाए
ख़ुदा शाहिद है मुझ को वो पिदर अच्छा नहीं लगता
अनवार फ़िरोज़
ग़ज़ल
ले गए सामने हाकिम के मिरे क़ातिल को
इस को उस ने भी समझ ख़ून-ए-पिदर छोड़ दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
गए दौड़े न आख़िर हज़रत-ए-याक़ूब कनआँ' से
ज़मीं नापे पिदर भी हुस्न-ए-मादर-ज़ाद के आगे
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
भुलाया गर्दिश-ए-अय्याम ने दस्त-ए-पिदर यूँ तो
मगर जब मोड़ कोई पुर-ख़तर आया तो याद आया
अली इफ़्तिख़ार ज़ाफ़री
ग़ज़ल
ये इक बेटी समझती है कि उस का घर बसाने को
मिरा बूढ़ा पिदर अंदर से कितना टूट जाता है
वाजिद हुसैन साहिल
ग़ज़ल
यहाँ पर कौन ज़िंदा अब रखे अपनी रिवायत को
यहाँ पर लोग जो मादर-पिदर-आज़ाद हो बैठे