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ग़ज़ल
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
तिरी चश्म-ए-तरब को देखना पड़ता है पुर-नम भी
मोहब्बत ख़ंदा-ए-बे-बाक भी है गिर्या-ए-ग़म भी
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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तिरी चश्म-ए-तरब को देखना पड़ता है पुर-नम भी
मोहब्बत ख़ंदा-ए-बे-बाक भी है गिर्या-ए-ग़म भी