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ग़ज़ल
पैरों को तो दश्त भी कम है सर को दश्त-नवर्दी भी
'आदिल' हम से चादर जितनी फैल सकी फैला ली है
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल
ग़ज़ल
किसी को क्या ख़बर पत्थर के पैरों पर खड़े हैं हम
सदाओं पर सदाएँ दे रहे हैं कारवाँ हम को