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ग़ज़ल
हुई बुलबुल सना-ख़्वान-ए-दहान-ए-तंग किस गुल की
कि फ़रवर्दी में ग़ुंचे का मुँह इतना सा निकल आया
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
सोच ऐ 'नाज़िश' न हो ये भी फ़रारी ज़ेहनियत
कर रहा है अहद-ए-हाज़िर में जो मुस्तक़बिल की बात