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ग़ज़ल
ख़ाक-नशीनों से कूचे के क्या क्या नख़वत करते हैं
जानाँ जान तिरे दरबाँ तो फ़िरऔन-ओ-शद्दाद हुए
जौन एलिया
ग़ज़ल
रहे हैं और हैं फ़िरऔन मेरी घात में अब तक
मगर क्या ग़म कि मेरी आस्तीं में है यद-ए-बैज़ा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
'असद' ये इज्ज़-ओ-बे-सामानी-ए-फ़िरऔन-ए-तौअम है
जिसे तू बंदगी कहता है दा'वा है ख़ुदाई का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तख़्त-ए-फ़िरऔन पे बैठे हैं जो इंसाँ-दुश्मन
हम से कहते हैं उन्हें ज़िल्ल-ए-इलाही लिखिए
सय्यदा फ़रहत
ग़ज़ल
सिफ़त फ़िरऔन की तुझ में है मैं मूसा का हामी हूँ
कभी तस्लीम मैं तेरी ख़ुदाई कर नहीं सकता