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ग़ज़ल
उस ने नफ़रत के सिवा और कभी कुछ न किया
फिर वो बद-ज़ात मोहब्बत का असर क्या जाने
ज़ोहेब फ़ारूक़ी अफ़रंग
ग़ज़ल
होते हुए दुश्मन के कहूँ क्यूँ के में कुछ बात
मज्लिस से तिरी दफ़अ ये बद-ज़ात कहीं हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
बिस्तर-ए-शैख़ पे जो कोंच की फल्लियाँ निकलीं
थे छुपाए हुए शायद उसी बद-ज़ात के बीज