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ग़ज़ल
शराब-ए-नाब है साग़र उठाइए वा'इज़
ये बद-मज़ा सही पर बद-मज़ा है कितनी देर
मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र
ग़ज़ल
ग़ज़ल में शेर बहुत नर्म हो गए 'अख़्तर'
ये किस ज़बान में कहते हो बद-मज़ा न करो
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
तिरे ग़म में है ग़म तेरी ख़ुशी में है ख़ुशी अपनी
वगर्ना बद-मज़ा बे-कैफ़ सी है ज़िंदगी अपनी