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ग़ज़ल
ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए
मैं ढेर हो गया तूल-ए-सफ़र से डरते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
रुख़ हवा का कोई जब पूछता उस से 'बानी'
मुट्ठी-भर ख़ाक ख़ला में वो उड़ा देता था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
मुझे पता था कि ये हादसा भी होना था
मैं उस से मिल के न था ख़ुश जुदा भी होना था
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
चुप रह कर इज़हार किया है कह सकते तो 'आनस'
एक अलाहिदा तर्ज़-ए-सुख़न का तुझ को बानी कहते
आनिस मुईन
ग़ज़ल
ये कैसे कोह के अंदर मैं दफ़्न था 'बानी'
वो अब्र बन के बरसता रहा है मेरे लिए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
रूह को उस की राह का पत्थर बनना ही मंज़ूर न था
बाज़ी हम ने ही जीती है अपनी इस क़ुर्बानी में
विलास पंडित मुसाफ़िर
ग़ज़ल
दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
मैं कि अक्स-ए-मुंतशिर एक एक मंज़र में अकेला
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
वो आज फिर यही दोहरा के चल दिया 'बानी'
मैं भूल के नहीं अब तुझ से बोलने वाला
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
अभी न बरसे थे 'बानी' घिरे हुए बादल
मैं उड़ती ख़ाक की मानिंद रहगुज़र में था