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ग़ज़ल
चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चाँद
राही मासूम रज़ा
ग़ज़ल
चराग़-ए-हक़ हैं तो ख़ामोश क्यूँ हैं वो 'रज़्मी'
बिना जले तो ग़लत-फ़हमियाँ बढ़ाते हैं
मुज़फ़्फ़र रज़्मी
ग़ज़ल
कुल्फ़त-ए-अफ़्सुर्दगी को ऐश-ए-बेताबी हराम
वर्ना दंदाँ दर दिल अफ़्शुर्दन बिना-ए-ख़ंदा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
आश्ना हो कर बुतों के हो गए हक़-आश्ना
हम ने काबे की बिना डाली है बुत-ख़ाने के बाद