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ग़ज़ल
आशाओं की सोहनी सहरी सेज सजाए रक्खूँ
जाने कौन घड़ी मेरे घर में आन बिराजें परियाँ
हसन अब्बास रज़ा
ग़ज़ल
वही आ के बिराजे आँगन में वही साजे नद्दी के तट पर
वही भैंसें चराए बैलों में वही चरवाहा वही कामा
नासिर शहज़ाद
ग़ज़ल
दिलबरी ठहरा ज़बान-ए-ख़ल्क़ खुलवाने का नाम
अब नहीं लेते परी-रू ज़ुल्फ़ बिखराने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
बिखराते हो सोना हर्फ़ों का तुम चाँदी जैसे काग़ज़ पर
फिर इन में अपने ज़ख़्मों का मत ज़हर मिलाओ इंशा-जी