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ग़ज़ल
रक़ाबत 'इल्म ओ 'इरफ़ाँ में ग़लत-बीनी है मिम्बर की
कि वो हल्लाज की सूली को समझा है रक़ीब अपना
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
क़ज़ा के सामने बे-कार होते हैं हवास 'अकबर'
खुली होती हैं गो आँखें मगर बीना नहीं होतीं
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
फ़ज़ा-ए-दहर में ये सैर-गह जिस ने बना दी है
तमाशाई जहाँ में दीदा-ए-बीना उसी का है
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
चश्म ओ दिल बीना है अपने रोज़ ओ शब ऐ मर्दुमाँ
गरचे सोते हैं ब-ज़ाहिर पर हैं बेदारी में हम
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
चश्म-ए-बीना भी अता की दिल-ए-आगह भी दिया
मेरे अल्लाह ने मुझ पर किए एहसाँ क्या क्या