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ग़ज़ल
ख़्वाब में बोसा लिया था रात ब-लब-ए-नाज़की
सुब्ह दम देखा तो उस के होंठ पे बुतख़ाला था
ममनून निज़ामुद्दीन
ग़ज़ल
का'बे में मुसलमान को कह देते हैं काफ़िर
बुत-ख़ाने में काफ़िर को भी काफ़िर नहीं कहते
बिस्मिल सईदी
ग़ज़ल
ताक़-ए-अबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई
अब तो पूजेंगे उसी काफ़िर के बुत-ख़ाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
वो सज्दे जिन से बरसों हम ने का'बे को सजाया है
जो बुत-ख़ाने को मिल जाएँ तो फिर बुत-ख़ाना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
आलम-ए-हुस्न ख़ुदाई है बुतों की ऐ 'ज़ौक़'
चल के बुत-ख़ाने में बैठो कि ख़ुदा याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
बुत-ख़ाना समझते हो जिस को पूछो न वहाँ क्या हालत है
हम लोग वहीं से लौटे हैं बस शुक्र करो लौट आए हैं
सुदर्शन फ़ाकिर
ग़ज़ल
उस नगरी में क़दम क़दम पे सर को झुकाना पड़ता है
उस नगरी में क़दम क़दम पर बुत-ख़ाने याद आते हैं
हबीब जालिब
ग़ज़ल
'क़मर' अल्लाह साथ ईमान के मंज़िल पे पहुँचा दे
हरम की राह में सुनते हैं बुत-ख़ाने बहुत से हैं
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
वफ़ा-दारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल ईमाँ है
मरे बुत-ख़ाने में तो का'बे में गाड़ो बरहमन को
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
अल्लाह री गुमरही बुत ओ बुत-ख़ाना छोड़ कर
'मोमिन' चला है का'बा को इक पारसा के साथ