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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बुलाते क्यूँ हो 'आजिज़' को बुलाना क्या मज़ा दे है
ग़ज़ल कम-बख़्त कुछ ऐसी पढ़े है दिल हिला दे है
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
कोई ऐसा तरीक़ा बता तेरी आवाज़ को चूम लूँ
उफ़ ये तेरा ''फ़रीहा! मिरी जान'' कह कर बुलाना मुझे
फ़रीहा नक़वी
ग़ज़ल
तमाम बज़्म ख़फ़ा है मगर न जाने क्यूँ
मुशाइरे में 'शफ़क़' को बुलाना पड़ता है