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ग़ज़ल
मस्ताना हमेशा रहो ऐ आशिक़-ए-'अफ़रीदी'
बे-इश्क़ अगर कोई मर्दाना हुआ तो क्या
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
बे-इश्क़ यक मरज़ थी मुझे अपनी ज़िंदगी
अच्छा हुआ जो इश्क़ का आज़ार हो गया
महाराजा सर किशन परसाद शाद
ग़ज़ल
मर्द क्यूँकर कहूँ बे-इश्क़ जो होवे कोई
फ़िरक़ा उश्शाक़ में उस के तईं कहते हैं कनीज़
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
'उम्र बे-‘इश्क़ जो गुज़री वो रही बे-हासिल
हेच है 'इश्क़ अगर 'उम्र का हासिल न बना
सिकंदर अली वज्द
ग़ज़ल
बे-इश्क़ जितनी ख़ल्क़ है इंसाँ की शक्ल में
नज़रों में अहल-ए-दीद के आदम ये सब नहीं