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ग़ज़ल
बुरा मत मान इतना हौसला अच्छा नहीं लगता
ये उठते बैठते ज़िक्र-ए-वफ़ा अच्छा नहीं लगता
आशुफ़्ता चंगेज़ी
ग़ज़ल
करे है कुछ से कुछ तासीर-ए-सोहबत साफ़ तबओं की
हुई आतिश से गुल की बैठते रश्क-ए-शरर शबनम
ख़्वाजा मीर दर्द
ग़ज़ल
याँ तक अदू का पास है उन को कि बज़्म में
वो बैठते भी हैं तो मिरे हम-नशीं से दूर
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
बैठते ही बैठते महफ़िल में बे-ख़ुद हो गया
देखते ही देखते रुख़्सत तवानाई हुई
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
रात जो जा बैठते हैं रोज़ हम मजनूँ के पास
पहले अन-बन रह चुकी है अब तो याराना रहे