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ग़ज़ल
तिरी सरकार में लाया हूँ डाली हसरत-ए-दिल की
अजब क्या है मिरा मंज़ूर ये नज़राना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
न हर्फ़-ए-हक़, न वो मंसूर की ज़बाँ, न वो दार
न कर्बला, न वो कटते सरों के नज़राने
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
कर सकते हैं चाह तिरी अब 'सरमद' या 'मंसूर'
मिले किसी को दार यहाँ और खिंचे किसी की खाल
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
पहले भी तवाफ़-ए-शम्-ए-वफ़ा थी रस्म मोहब्बत वालों की
हम तुम से पहले भी यहाँ 'मंसूर' हुए 'फ़रहाद' हुए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
देखना उस की तजल्ली का जिसे मंज़ूर है
संग-रेज़ा भी नज़र में उस की कोह-ए-तूर है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
नए मंसूर हैं सदियों पुराने शेख़-ओ-क़ाज़ी हैं
न फ़तवे कुफ़्र के बदले न उज़्र-ए-दार ही बदला