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ग़ज़ल
मैं हूँ ख़ुद अपनी ही ख़ाकिस्तर-ए-जाँ में मदफ़ून
दफ़्न हो जैसे ख़राबे में कोई सरमाया
रईस अमरोहवी
ग़ज़ल
फ़लक हद है कि सरहद है ज़मीं मादन है या मदफ़न
मुझे बेचैन ही रखते हैं ये वहम ओ यक़ीं मेरे
अंजुम ख़लीक़
ग़ज़ल
बहुत घुटन है यहाँ पर कोई बचा ले मुझे
मैं अपनी ज़ात में मदफ़ून हूँ निकाले मुझे
शहज़ाद अंजुम बुरहानी
ग़ज़ल
अपना सीना है कि है गंज-ए-शहीदाँ 'मुज़्तर'
एक दुनिया यहीं मदफ़ून है अरमानों की