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ग़ज़ल
महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो
आँखों से बहने दीजिए पानी ही क्यूँ न हो
मुनव्वर राना
ग़ज़ल
जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं
शाम ढले पेड़ों पर मर्सिया-ख़्वानी होती है
अफ़ज़ल ख़ान
ग़ज़ल
फ़ज़ा-ए-ज़िंदगी की ज़ुल्मतों के मर्सिया-ख़्वानो
अँधेरों ही के दम से इम्तियाज़-ए-नूर होता है
आमिर उस्मानी
ग़ज़ल
इसे हम मर्सिया-गोयों पे 'मोहसिन' छोड़ देते हैं
लिखें हम आप अपना मर्सिया अच्छा नहीं लगता
मोहसिन ज़ैदी
ग़ज़ल
पढ़ चुका अपनी ग़ज़ल 'मंज़ूर' तो ऐसा लगा
मर्सिया था दौर-ए-हाज़िर का ग़ज़ल-ख़्वानी न थी
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
रोने जाता हूँ मैं अपनी हसरतों के ढेर पर
बे-कसी आ कर सिखा दे मर्सिया-ख़्वानी मुझे
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
हैफ़ क्यूँ क़िस्मत-ए-शाएर पे न आए 'आजिज़'
कल भी कम-बख़्त रहा मर्सियाँ-ख़्वाँ आज भी है
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
हम पे जो गुज़री है बस उस को रक़म करते हैं
आप-बीती कहो या मर्सिया-ख़्वानी कह लो