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ग़ज़ल
शैख़ जो है मस्जिद में नंगा रात को था मय-ख़ाने में
जुब्बा ख़िर्क़ा कुर्ता टोपी मस्ती में इनआ'म किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
उस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में उस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
बर्ग-ए-गुल पर रख गई शबनम का मोती बाद-ए-सुब्ह
और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
अपनी बीती कैसे सुनाएँ मद-मस्ती की बातें हैं
'मीरा-जी' का जीवन बीता पास के इक मय-ख़ाने में
मीराजी
ग़ज़ल
ज़मीर-ए-पाक ओ निगाह-ए-बुलंद ओ मस्ती-ए-शौक़
न माल-ओ-दौलत-ए-क़ारूँ न फ़िक्र-ए-अफ़लातूँ