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ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
उस से खिंच रहता हूँ जब तब ये कहे है मुझ से दिल
आशिक़ी या कीजिए या मीरज़ाई कीजिए
रजब अली बेग सुरूर
ग़ज़ल
तमन्ना-ए-दिली ने 'मुंतही' खोया मशीख़त को
मिलाया ख़ाक में दस्त-ए-हवस ने मीरज़ाई को
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
ख़याल-ए-मीरज़ाई ऐ 'नसीम'-देहलवी कब तक
झुको बुड्ढे हुए अब रुख़्सत-ए-लुत्फ़-ए-जवानी है
नसीम देहलवी
ग़ज़ल
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता