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ग़ज़ल
शफ़क़ होती है जैसे मुंतक़िल शब के अँधेरों में
बदलती जाती है ताबीर-ए-ख़्वाब आहिस्ता आहिस्ता
मोहसिन उस्मानी
ग़ज़ल
वो यानी जिस्मों में रूहों के मुंतक़िल की घड़ी
हमारे वास्ते हैरत का दर खुला हुआ था
इक़रार मुस्तफ़ा
ग़ज़ल
ज़ख़्म-ए-ताज़ा बर्ग-ए-गुल में मुंतक़िल होते गए
पंजा-ए-सफ़्फ़ाक में ख़ंजर ख़जिल होते गए