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ग़ज़ल
वो हर्फ़-ए-आरज़ू जिस पर मुकम्मल ज़ब्त है अब तक
कहीं ऐसा न हो शर्मिंदा-ए-इज़हार हो जाए
कँवल एम ए
ग़ज़ल
बात करने से भी नफ़रत हो गई दिलदार को
वाह-रे इज़हार-ए-उल्फ़त वाह-रे तासीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
इक जुर्म और फ़र्द-ए-जराएम में बढ़ गया
या'नी न दर्द-ए-दिल का हो इज़हार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
जज़्बा-ए-शौक़ का इज़हार न होने पाए
दिल की बे-ताबियाँ नज़रों से गिरा देती हैं