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ग़ज़ल
वो कोई गुस्ताख़ पागल मंचला था मैं रंग-ए-सुख़न था
आप को छेड़ा था जिस ने दूसरा था मैं रंग-ए-सुख़न था
रसा देहलवी
ग़ज़ल
है मिरा रंग-ए-सुख़न रंग-ए-बयाँ कुछ मुख़्तलिफ़
ये नशात-ए-दिलबरी तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ कुछ मुख़्तलिफ़
शाहिदा लतीफ़
ग़ज़ल
तमाँचा बाग़ के रुख़्सार पर लगा किस का
कि ताएरों का भी रंग-ए-सुख़न शिकस्ता है
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
साथी और किसी का मेरा हम-ज़ौक़-ओ-हम-रंग-ए-सुख़न
उस की तन्हाई को शायद कुछ मेरी भी ज़रूरत थी
पीर अकरम
ग़ज़ल
मिरी सरिश्त-ए-'सुख़न' में हैं कुछ नए उस्लूब
नई ग़ज़ल ने मुझे भी ख़ुश-आमदीद कहा
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
वो जो हैं लज़्ज़त-ए-तफ़्हीम-ए-सुख़न से वाक़िफ़
शे'र सुनते हैं वही लोग मुकर्रर मुझ से
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
किसी के नक़्श-ए-क़दम की थी जुस्तुजू वर्ना
मैं इस तरह तो 'सुख़न' दर-ब-दर नहीं होता
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
हुसूल-ए-अम्न-ओ-मुहब्बत की चाशनी के लिए
मिज़ाज-ए-तल्ख़ी-ए-दौराँ 'सुख़न' गवारा कर
अब्दुल वहाब सुख़न
ग़ज़ल
अभी है दूर हर इक महफ़िल-ए-तरब से 'सुख़न'
दिल-ओ-नज़र में अभी इज़्तिराब इतने हैं