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ग़ज़ल
रह-ए-उल्फ़त में जब तर्क-ए-तवस्सुत का मक़ाम आया
न दुनिया मेरे काम आई न मैं दुनिया के काम आया
ख़्वाजा शौक़
ग़ज़ल
रह-ए-उल्फ़त में यूँ तो का'बा-ओ-बुत-ख़ाना आता है
जबीं झुकती है लेकिन जब दर-ए-जानाना आता है
मानी जायसी
ग़ज़ल
ख़ुश-नसीबान-ए-रह-ए-उल्फ़त तो मंज़िल पा गए
अपने हिस्से में जो आई वो सफ़र की गर्द है
सदार ख़ान सोज़
ग़ज़ल
जावेद उल्फ़त
ग़ज़ल
मैं शहीद-ए-रह-ए-उल्फ़त हूँ अज़ल से 'सरमद'
यही मस्लक मिरा ईमान हुआ जाता है
मौलवी सय्यद मुमताज़ अली
ग़ज़ल
क्यों हम से सदा रखते वो रस्म-ओ-रह-ए-उल्फ़त
याराने बहुत उन को निभाने के लिए हैं
ज़ाहिद अली ख़ान असर
ग़ज़ल
ये अपनी मुख़्तसर है 'अश्क' रूदाद-ए-रह-ए-उल्फ़त
कि बस नाकामियों को साथ हर हर गाम देखा है