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ग़ज़ल
पाँव में रिश्तों की ज़ंजीरें हैं दिल में ख़ौफ़ की
ऐसा लगता है कि हम अपने घरों में क़ैद हैं
सलीम कौसर
ग़ज़ल
तुम्हें देखें निगाहें और तुम को ही नहीं देखें
मोहब्बत के सभी रिश्तों का यूँ नादार हो जाना
अदा जाफ़री
ग़ज़ल
कटी हुई थीं तनाबें तमाम रिश्तों की
छुपाता सर मैं कहाँ तुझ से रस्म-ओ-राह के बा'द
कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल
वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था
कि चुप सी लग गई दोनों को बात करते हुए
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
कठिन तो बहुत है मगर दिल के रिश्तों को आज़ाद छोड़ो
तवक़्क़ो' न बाँधो कि ये इक अज़िय्यत भरा तजरबा है
जव्वाद शैख़
ग़ज़ल
फ़ासले हैं भी और नहीं भी नापा तौला कुछ भी नहीं
लोग ब-ज़िद रहते हैं फिर भी रिश्तों की पैमाइश पर
गुलज़ार
ग़ज़ल
गुज़रेगी 'जौन' शहर में रिश्तों के किस तरह
दिल में भी कुछ नहीं है ज़बाँ पर भी कुछ नहीं
जौन एलिया
ग़ज़ल
हर साल की आख़िरी शामों में दो चार वरक़ उड़ जाते हैं
अब और न बिखरे रिश्तों की बोसीदा किताब तो अच्छा हो