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ग़ज़ल
ख़त से वो ज़ोर सफ़ा-ए-हुस्न अब कम हो गया
चाह-ए-यूसुफ़ था ज़क़न सो चाह-ए-रुसतम हो गया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
तिरी अब्रू-ओ-तेग़ तेज़ तो हम-दम हैं ये दोनों
हुए हैं दिल जिगर भी सामने रुस्तम हैं ये दोनों
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
जहाँ के रुस्तम-ओ-दारा के छक्के छूट जाएँगे
मुसलमाँ मुत्तहिद हो जाएँ तो क्या हो नहीं सकता
वहिद अंसारी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
तख़्त-नशीनों का क्या रिश्ता तहज़ीब-ओ-आदाब के साथ
ये जब चाहें जंग करा दें रुस्तम की सोहराब के साथ
रहबर जौनपूरी
ग़ज़ल
रुस्तम-ओ-दारा सिकंदर मिल गए सब ख़ाक में
बन के सरमद ज़िंदगी अपनी बसर कर रक़्स कर
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
मर्द-ए-मैदान-ए-मोहब्बत है तो ऐ रुस्तम निकल
कुछ सकत हो तो कमान-ए-अबरू-ए-ख़मदार खींच
शाह अकबर दानापुरी
ग़ज़ल
पकड़ मिज़्गाँ के पंजे सूँ मरोड़ा यूँ मिरे दिल को
तिरी ज़ोर-आवरी में आज रुस्तम हैं बली अँखियाँ
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
मिरी जाँ-बाज़ियों पर गोर में रुस्तम ये कहता है
न थे ऐसे जरी गो शेर का दिल हम भी रखते थे