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ग़ज़ल
जो तिरे रू-ए-दरख़्शाँ पे नज़र रखते हैं
वो ख़यालों में कहाँ शम्स-ओ-क़मर रखते हैं
सुमन ढींगरा दुग्गल
ग़ज़ल
ये रू-ए-दरख़्शाँ ये ज़ुल्फ़ों के साए
ये हंगामा-ए-सुबह-ओ-शाम अल्लाह अल्लाह
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
ग़ज़ल
हमारी आँख से गिरते नहीं ये अश्क के क़तरे
निछावर करते हैं मोती तुम्हारे रू-ए-रौशन पर
नवाब शाहजहाँ बेगम शाहजहाँ
ग़ज़ल
पड़ा था अक्स-ए-रू-ए-नाज़नीं अर्सा हुआ उस को
पर अब तक तैरता फिरता है शक्ल-ए-गुल समुंदर में
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
एक दिन ये है कि हैं इक शम्अ-रू पर ख़ुद निसार
एक दिन वो था बुरा कहते थे परवाने को हम
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
पी बादा-ए-अहमर तो ये कहने लगा गुल-रू
मैं सुर्ख़ हूँ तुम सुर्ख़ ज़मीं सुर्ख़ ज़माँ सुर्ख़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
किस से मिलते हैं कहाँ जाते हैं क्या करते हैं
वसवसे दिल में ये रह रह के उठा करते हैं
शकील इबन-ए-शरफ़
ग़ज़ल
आह को बाद-ए-सबा दर्द को ख़ुशबू लिखना
है बजा ज़ख़्म-ए-बदन को गुल-ए-ख़ुद-रू लिखना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
सफ़र जारी है सदियों से हमारा नब्ज़-ए-आलम में
निगाहों से ज़माने की मगर रू-पोश रहते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
रखो मत चश्म-ए-ख़्वाब ऐ दोस्तो 'बेदार' से हरगिज़
कोई देती है सोने याद उस रू-ए-दरख़्शाँ की