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ग़ज़ल
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
'नज़ीर' इस रेख़्ते को सुन वो हँस कर यूँ लगी कहने
अगर होते तो मैं देती तुझे इक थाल भर मोती
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ज़बाँ कर अपने मिज़्गाँ कूँ लगी हैं रेख़्ते पढ़ने
हुई हैं 'आबरू' के वस्फ़ में तेरी वली अँखियाँ
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
'नसीर' आसाँ नहीं ये बात पानी सख़्त मुश्किल है
उठाई रेख़्ते की तू ने क्या दीवार पानी में
शाह नसीर
ग़ज़ल
ब'अद इस के रेख़्ते की भी रक्खी है वो बिना
हैराँ हैं जिस के नक़्श-ए-तराज़ान-ए-शाएरी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
दो क़रन गुज़रे इसी फ़िक्र-ए-सुख़न में रोज़-ओ-शब
रेख़्ते के फ़न में 'हातिम' आज ज़ुलक़रनैन है
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
ऐ 'बक़ा'-ए-कारवाँ इस रेख़्ते की हर रदीफ़
गरचे है बे-कार पर बतला कहाँ बे-कार है
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'
ग़ज़ल
मिरे चारा-गर को नवेद हो सफ़-ए-दुश्मनाँ को ख़बर करो
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर वो हिसाब आज चुका दिया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
रखते हो तुम क़दम मिरी आँखों से क्यूँ दरेग़
रुत्बे में महर-ओ-माह से कम-तर नहीं हूँ मैं