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ग़ज़ल
अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले
गुल ओ रैहाँ सूँ रंग-ओ-बू शिताबी पेशवा निकले
वली दकनी
ग़ज़ल
ख़त-ए-नौ-ख़ेज़ में आरिज़ जो तेरे छुपते जाते हैं
परी बन जाएँगे इस सब्ज़ शीशे में निहाँ हो कर
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
ग़ज़ल
तू दौर-ए-नौ के तक़ाज़ों को अपने ध्यान में रख
मिला है 'इल्म क़दम अपने आसमान में रख
हीरा लाल फ़लक देहलवी
ग़ज़ल
ख़त-ए-नौ-ख़ेज़ नील-ए-चश्म ज़ख़्म-ए-साफ़ी-ए-आरिज़
लिया आईना ने हिर्ज़-ए-पर-ए-तूती ब-चंग आख़िर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
नौ ख़त तो हज़ारों हैं गुलिस्तान-ए-जहाँ में
है साफ़ तो यूँ तुझ सा नुमूदार कहाँ है
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
शान-ए-तग़ाफ़ुल अपने नौ-ख़त की क्या लिखें हम
क़ासिद मुआ तब उस के मुँह से जवाब निकला
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
लिखते हम तो ख़त-ए-महबूब को हर दम नौ-ख़त
लिखने देते जो हमें दीदा-ए-गिर्यां काग़ज़
मातम फ़ज़ल मोहम्मद
ग़ज़ल
कहिए वो ला'ल-ए-लब ख़त-ए-मुश्कीं में देख कर
पैदा हुआ है लाल-ए-बदख़्शाँ ततार में
गोया फ़क़ीर मोहम्मद
ग़ज़ल
नौ-मुलाज़िम लाल-ए-लब को ले गए तनख़्वाह में
बे-तलब रहता है ये नौकर तिरी सरकार का
अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ
ग़ज़ल
मैं देखता नहीं बे-वजह सब्ज़ा-ए-नौ-ख़ेज़
कभी है सब्ज़ा-ए-ख़त की बहार आँखों में