चला है ओ दिल-ए-राहत-तलब क्या शादमाँ हो कर
ज़मीन-ए-कू-ए-जानाँ रंज देगी आसमाँ हो कर
किया वीराँ चमन को आए हो क्या बोस्ताँ हो कर
हुए गुल पानी पानी ये चली आब-ए-रवाँ हो कर
इसी ख़ातिर तो क़त्ल-ए-आशिक़ाँ से मन' करते थे
अकेले फिर रहे हो यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ हो कर
जवाब-ए-नामा क्या लाया तन-ए-बे-जाँ में जान आई
गया याँ से कबूतर वाँ से आया मुर्ग़-ए-जाँ हो कर
ग़ज़ब है रूह से इस जामा-ए-तन का जुदा होना
लिबास-ए-तंग है उतरेगा आख़िर धज्जियाँ हो कर
अगर आहिस्ता बोलूँ ना-तवानी कहती है बस बस
सदा-ए-जुम्बिश-ए-लब देते ही सदमे फ़ुग़ाँ हो कर
इज़ार-ए-आतिशीं ख़त्त-ए-सियह इक दिन निकालेगा
रुलाएगा ये शो'ला मेरी आँखों का धुआँ हो कर
मुकद्दर हो अगर लो मुझ को गाड़ो इस तरफ़ देखो
कि ज़ेर-ए-ख़ाक हूँ गर्द-ए-निगह से ना-तवाँ हो कर
किया ग़ैरों को क़त्ल उस ने मुए हम रश्क के मारे
अजल भी दोस्तो आई नसीब-ए-दुश्मनाँ हो कर
फिरा सद-चाक हो कर कूचा-ए-काकुल से दिल अपना
अज़ीज़ो यूसुफ़-ए-गुम-गश्ता आया कारवाँ हो कर
कमान अबरू की ऐसे नर्म है आएगा जो नावक
रहेगा उस्तुख़्वाँ में अपने मग़्ज़-ए-उस्तुख़्वाँ हो कर
छुड़ाई चूस कर हम ने मिसी तो क्या है शरमाया
लब उस महजूब का छुपने लगा मुँह में ज़बाँ हो कर
फ़लक मेरी तरह आख़िर तुझे भी पीस डालेगा
उड़ेगा ऐ हुमा इक रोज़ गर्द-ए-उस्तुख़्वाँ हो कर
हुमा से है कड़ापन ऐ सग-ए-जानाँ जो तू खाए
मुलाइम उस्तुख़्वाँ हो जाएँ मग़्ज़-ए-उस्तुख़्वाँ हो कर
जहाँ जो चाहिए वैसी ही वो दिखलाए नैरंगी
बसर आँखों में गोयाई ज़बाँ में दिल में जाँ हो कर
सितम कर उस के ये देखे तो ख़ूँ-रेज़ी पे माइल हो
करे संग-ए-मलामत तेज़ ख़ंजर को फ़साँ हो कर
नहाने में जो लहराती है ज़ुल्फ़-ए-यार दरिया में
तड़पने लगती हैं पानी पे मौजें मछलियाँ हो कर
उदासी झुक के मिलते हो निगह से क़त्ल करते हो
सितम-ईजाद हो नावक लगाते हो कमाँ हो कर
उठाएगी जो हम को वहशत-ए-दिल यार के दर से
गिरेंगे पाइज़ी पाँव पे अपने बेड़ियाँ हो कर
कहा जो उस ने चाहा ज़ो'फ़ से याँ लब नहीं मिलते
सुबुक कर देती हैं हर्फ़-ए-सुख़न बार-ए-गराँ हो कर
असर बाक़ी रहा बलबे शब-ए-फ़ुर्क़त की तारीकी
चराग़-ए-रोज़ से शो'ला निकल आया धुआँ हो कर
ख़त-ए-नौ-ख़ेज़ में आरिज़ जो तेरे छुपते जाते हैं
परी बन जाएँगे इस सब्ज़ शीशे में निहाँ हो कर
गिरा क़दमों पे सैद-ए-नातवाँ था हाथ से छुट कर
जगह दे अब तो नक़्श-ए-पा-ए-सय्याद आशियाँ हो कर
तिरे वहशी को बरसों ऐ परी कब नींद आती है
अगर ख़्वाब-ए-गिराँ आया भी तो संग-ए-गिराँ हो कर
'वज़ीर' उस का हूँ मैं शागिर्द जिस को कहते हैं मुंसिफ़
लिया मुल्क-ए-मआ'नी बादशाह-ए-शाइराँ हो कर
स्रोत:
Daftar-e-Fasahat (Pg. ebook-100 page-84)
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लेखक:
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर
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- संस्करण: 1847
- प्रकाशक: मतबा मुस्तफ़ाई, लखनउ
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