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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
'फ़ज़ा' तुझी को ये सफ़्फ़ाकी-ए-हुनर भी मिली
इक एक लफ़्ज़ को यूँ बे-लिबास कर जाना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
मयस्सर हो तो क़द्रे लुत्फ़ भी नेमत है याँ यारो
किसी का वादा-ए-ऐश-ए-दवाम अच्छा नहीं लगता
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मिरी जबीन-ए-नियाज़ में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
मैं ग़ैर जिस को समझ रहा था वो मैं ही ख़ुद था
लिबास-ए-ग़ैज़-ओ-इताब उतरा तो मैं ने देखा
शाद जीलानी
ग़ज़ल
क़ैस-ओ-फ़रहाद का मुँह? मुझ से मुक़ाबिल होंगे?
मर्दुम-ए-वादी-ओ-कोहसार की अफ़्वाहें हैं