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ग़ज़ल
गिरे हम मिस्ल-ए-मूसा वादी-ए-उल्फ़त में ग़श खाकर
जमाल-ए-हक़ जो हुस्न-ए-क़ामत-ए-दिलदार में देखा
हामिद हुसैन हामिद
ग़ज़ल
होशियारी से हो 'परवीं' चमन-ए-हुस्न की सैर
दाम और दाना हैं दोनों रुख़-ए-दिलदार के पास
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
बात करने से भी नफ़रत हो गई दिलदार को
वाह-रे इज़हार-ए-उल्फ़त वाह-रे तासीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
किया ईमान ताज़ा क़ामत-ए-दिलदार ने ऐसा
'सफ़ीर' अब हम भी इंकार-ए-क़यामत कर नहीं सकते
मोहम्मद अब्बास सफ़ीर
ग़ज़ल
बहुत नाज़ुक हैं मेरे सर्व क़ामत तेग़ज़न लोगो
हज़ीमत ख़ुर्दगी मेरी सफ़-ए-लश्कर पे लिख देना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
लोट था दिल क़ामत-ए-दिलदार पर मुद्दत हुई
नख़्ल-ए-तूबा पर था अपना आशियाना याद है
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
कारोबार-ए-ज़िंदगी तक हैं ये हंगामे 'फ़ज़ा'
क्या वो साया छोड़ देगा जो शजर ले जाएगा