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ग़ज़ल
अपने समंद-ए-नाज़ को ऐ शहसवार आ छेड़ कर
सफ़-बस्ता हाज़िर कब से हैं महव-ए-तमाशा इक तरफ़
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
जला रक्खे हैं शहराहों पे अश्कों के दिए कब से
नहीं गुज़रा कभी इस सम्त से वो शहसवार अब तक
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
वस्ल है इक शहसवार-ए-हुस्न से शाम-ओ-सहर
है इनान-ए-अबलक़-ए-गर्दूं हमारे हाथ में