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ग़ज़ल
आँसुओं के साथ आख़िर बह गई शाम-ए-अलम
जाने क्या क्या ख़्वाब बुनती रह गई शाम-ए-अलम
मुनव्वर ताबिश सम्भली
ग़ज़ल
पस-ए-शाम-ए-अलम किसी महर-ए-निगाह को देखते थे
वो लोग कहाँ मिरे हाल-ए-तबाह को देखते थे
मोहम्मद ख़ालिद
ग़ज़ल
शाम-ए-अलम से पहले भी सुब्ह-ए-तरब के बा'द भी
शौक़-ए-तलब न मिट सका तर्क-ए-तलब के बा'द भी
मेराज लखनवी
ग़ज़ल
मुमताज़ नसीम
ग़ज़ल
'अलम’ रब्त-ए-दिल-ओ-पैकाँ अब इस आलम को पहुँचा है
कि हम पैकाँ को दिल दिल को कभी पैकाँ समझते हैं