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ग़ज़ल
बिखर जाएगा सब हुस्न-ए-चमन-बंदी का शीराज़ा
हवा-ए-सर-कशी में जब फ़ज़ा-ए-रंग-ओ-बू होगी
ऋषि पटियालवी
ग़ज़ल
'ख़लील' इक जान हो जाना ज़रूरी है ज़माने में
ख़लल-अंदाज़ शीराज़े के शह-पारे बदल डालो
इब्राहीम ख़लील
ग़ज़ल
न बाहर ही लगे है दिल न घर जाने को जी चाहे
समझ में कुछ नहीं आता किधर जाने को जी चाहे
नादिम अशरफी बुरहानपुरी
ग़ज़ल
बड़ी ख़्वाहिश है फिर से ज़िंदगी हमवार करने की
मगर उस से कहीं मिस्मार शीराज़ा न हो जाए