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ग़ज़ल
दिल की तसल्ली जब कि होगी गुफ़्त ओ शुनूद से लोगों की
आग फुंकेगी ग़म की बदन में उस में जलिए भुनिएगा
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
सालिक है क्यूँ तख़य्युल-ए-तर्क-ए-वजूद में
नक़्श-ए-सुवर का रंग है तेरे शुहूद में
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
तर्क इन दिनों जो यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद है
हम को मोहर्रम और रक़ीबों को ईद है
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
मुमकिन है ख़ूब खुल के हो गुफ़्त-ओ-शुनीद आज
वो भी ख़फ़ा है हम भी हैं कुछ बद-गुमान से